जंगल में रहता था, मस्त रहता था और जब मन होता, नाचने लगता। दिल खोल के नाचता था, पंखों को फैला-फैला कर। भरपेट भोजन हुआ, नाचने लगा, आसमान पर बादल छाये, नाचने लगा, मोरनी नगीच दिखी, नाचने लगा, सैटिंग हो गई, नाचने लगा।
खुशी का हिसाब-किताब नहीं, देखने वालों से मतलब नहीं (मोरनी छोड़)।
फिर उसका दुर्भाग्य हुआ कि किसी चतुर ने उसे देख लिया, और उसमें संभावनायें देख लीं । उसने तारीफों के पुल बाँध दिये, ख्याति का, प्रभुता का लोभ दिखाया, और इतना समझा गया कि, "जंगल में मोर नाचा, किसने देखा ?"
प्रचार के, प्रदर्शन के इन्तजाम हो गये, और सच में मोर के नृत्य के प्रशंसक, दुनियाँ के कोने कोने में दिखने लगे। मोर अब नियमित नाचता था, मगर अपने लिये नहीं, ऑन डिमांड, नृत्य में, कुदरती मौलिकता जाती रही, खुशी के, संतोष के, प्रेम के हेतुक समाप्त हुए, उनकी जगह ले ली व्यावसायिक सोच विचार ने। ख्याति मिली, मगर खुशी जाती रही। सुख की चाबी, अब उसके पास रही, नहीं थी।
कालान्तर में दुनियाँ ने कृत्रिम उपाय विकसित कर लिये, फोटो खिंचने लगे, फोटोशॉप होने लगे, वीडियो, स्पेशल इफैक्ट्स, ऐसे ऐसे कि मोर की भी जरूरत नहीं रही, और नृत्य कौशल, जैसे चाहो, जब चाहो, इन्टरनेट आ गया तो वीडियो घर घर में वायरल होने लगे।
आज यही हो रहा है, प्रेजेंटेशन ऐसे कि यकीन ही ना हो, घर घर, मोबाइल मोबाइल, और मोर, मोर का तो कोई पुरसा हाल ही नहीं, जंगल में ही किसी कोने में पड़ा पड़ा सिसक रहा है, कोस रहा है उस दिन को, जब लालच में आकर, नैसर्गिक छोड़, व्यावसायिक हुआ था।
पैकिंग, प्रेजेंटेशन, प्रचार... सब लाजवाब, मगर बोतल ? वो तो खाली की खाली !
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