"सीमौल्लंघन" !

 


"सीमौल्लंघन" !



बहुत कीमती, बहुत प्यारा सा शब्द है, मुझ से, इसकी जान पहचान, बहुत पुरानी नहीं, इसी दशहरे से। अपने प्रतीक पर्व पर, पूजा-आयोजन के सम्बन्ध में, सेना में, पुजारी के रूप में, सेवायें दे चुके, अब सेवानिवृत, पूजनीय गुरु जी से चर्चा के बीच, यह जानकारी हुई, और हैरानी भी, कि यह सांकेतिक रीति, बहुत पुराने समय से, इस औसरीय उत्सव का, महत्वपूर्ण और आवश्यक अंग, रहती आई है।

ठीक से समझना आवश्यक है, अन्यथा, अर्थ का अनर्थ होते, देर कहाँ लगती है। "सीमा+उल्लंघन", अर्थात सीमाओं का (सीमित) उल्लंघन, बार्डर क्रास करना, मगर ऐसे, और इतना भर, कि सजगता बनी रहे, जंग छिड़ने की नौबत ना आ जाये। आपकी सामर्थ्य की, क्षमता की, प्रकट सीमा से बाहर निकलता, एक, या आधा, उससे अधिक नहीं, कदम, बस आपके आशय, आपकी दशा और दिशा की पुष्टि भर करता हुआ...

"शिव खेड़ा साहब", अरे, अपने "you can win" वाले, का सम्बोधन हो रहा था, विषय था, 'सेवा अवसरों की कमी', और वो पूछ बैठे कि कितने लोग, पारिश्रमिक के सापेक्ष, थोड़ा-बहुत, इत्ता सा, अतिरिक्त काम करने को राजी हैं ? जैसे, अगर कुर्सियाँ शिफ्ट करनी हों, और प्रति कुर्सी, 5 ₹ मिलने तय हों तो दिन भर में सौ कुर्सी, और पाँच सौ रुपये के बाद, दो-चार कुर्सियाँ और भी, फ्री, और खुशी खुशी, शिफ्ट करने को, राजी हों।

दूध वाला चार लीटर दूध नाप चुकने के बाद, पचीस-पचास एम एल बाद में, और डालता है, वो। सब्जी वाला, सब्जी की कीमत ले चुकने के बाद, थोड़ा सा धनियां मिर्ची, फ्री में डाल दे, वो। दफ्तर का काम करते करते, रात के नौ बज गये हैं, काम निबट गया है, मगर सब कोई थक के चूर हैं, और तब, आपका बाबू, घर जाने से पहले, चेहरे पर मुस्कराहट लिये, पूछता है, "और कोई काम, साहब ?", वो।

ढूंढे नहीं मिलते, साहब, लोग तो इस फिराक में रहते हैं कि, कुर्सी शिफ्ट ही ना करनी पड़े, या कम से कम में काम चल जाये, मगर पैसे, पूरे मिलें, हो सके तो बोनस भी। अगर होते हैं तो, उन्हें नौकरी ढूंढनी नहीं पड़ती, नौकरी खुद उन्हें ढूंढती हुई, घर तक आ जाती है।

इस अतिरिक्त का पैसा, भले ना मिलता हो, कीमत बहुत होती है, शायद इतनी कि, लगाई भी ना जा सके। यह अतिरिक्त काम, या सामान नहीं, सद्भाव है, positivity है, अमूल्य है !

उपरोक्त "सीमौल्लंघन" में सन्दर्भित 'सीमित' की भी, सीमा होती है। बस 'इत्ता' सा, प्रतीकात्मक तक ही ठीक, इससे अधिक हो तो उचित, पारिश्रमिक प्राप्त करना ही चाहिए। आपके श्रम की, सामग्री की, उचित कीमत, और महत्व कम होने लगता है, आपका शोषण, प्रारंभ होते देर नहीं लगती । दफ्तरों में, केवल कर्तव्य पालन को तत्पर लोगों को ही, बिना अनुतोष, काम से लादते जाना, सदाशय सद्भाव के दुरुपयोग के ही उदाहरण हैं, जिनका निधेष भी, उतना ही जरूरी और महत्वपूर्ण है, जिससे कि, कम से कम, शुचिता तो बनी रहे।

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