बहुत पुरानी, घिसी-पिटी, कहानी है, एक राजा था, एक वज़ीर था उसका, बहुत बुद्धिमान, सलाहकार। कभी-कभार, राजा की सुविचारित योजना, धरी की धरी रह जाती, कोई अनहोनी घट जाती, तो राजा विचलित होता, और वज़ीर समझाता, "वो हमेशा, ठीक ही करता है, कभी तुरत समझ आ जाता है, कभी-कभी थोड़ी देर लगती है। हर घटना में, जो हमें पसन्द ना आये, हमारा ही, कुछ ना कुछ, हित छुपा होता है।"
बुद्धिमान था, और अनेकानेक अवसरों पर, राजा को आपदाओं से बचा लाया था, तो राजा आदर करता था, बात मान ही लेता था, शान्त हो जाता था। मगर, एक बार हद पार ही हो गई। तीर संधान करते हुए, ध्यान बँटा और राजा का कान, चोटिल हो गया, खून बहने लगा, दुखन ऊपर से, और सामने पड़ गया, मन्त्री। पूछ बैठा, अब इसमें कौन सा हित छुपा है ? मन्त्री, स्थिर ! "थोड़ी प्रतीक्षा करें, श्रीमान, शायद स्पष्ट हो।"
बात, आई गई हो गई, याद भी जाती रही, राजा शिकार को जंगल में गया हुआ था, रास्ता भटका, अपने सब छूट गये और उसे घेर लिया, आदिवासियों ने, जो किसी उत्सव को मना रहे थे, और देवी को बलि चढ़ाने के लिए, एक मानव खोज रहे थे। मिल गया राजा, तलाश खतम हुई, राजा की, एक ना सुनी गई। बलि के लिए, शुद्ध शरीर चाहिए तो राजा को स्नान कराया जा रहा था कि उसका, कटा हुआ कान, दिखाई दे गया। अपूर्ण को भेंट नहीं किया जाता तो राजा को अपात्र जान, छोड़ दिया गया। मन्त्री की स्थिर मान्यता, इतने समय बाद, सही सिद्ध हुई।
कहानी तो घिसी-पुरानी है, मगर निहितार्थ शाश्वत हैं, सदैव प्रासंगिक। हम सभी तो, अपनों को सर्वश्रेष्ठ ही चाहते हैं, जो भी हो पाता है, करते हैं, मगर बना पाते हैं, क्या ? कर्मण्येवाधिकारस्ते.... आप ही तो नहीं हैं, स्कूल है, दोस्त हैं, टीचर हैं, भाई-बहन, नाते रिश्तेदार, अड़ोसी पड़ोसी, आप गिन भी नहीं सकते, कन्ट्रोल कर पाओगे ? और आप खुद, कब प्यार प्यार में, बिगाड़ दें, या कठोरता दिखाते दिखाते बना जायें, काबिल भी, मजबूत भी !
मान भी लीजिए, आपके हाथ, सिर्फ विनम्र कोशिशें हैं, बनाना, किसी और के हाथ, उसके हाथ, जिसने आप को भी बनाया, विधाता कहिये, भाग्य कहिए, या कुछ और !
और हाँ, उससे गलत, कभी नहीं होता। समझ अभी आए, या फिर कभी, या तो कभी भी नहीं 👐
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